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‘अगर कोई भी विचार पहुंचाना हो, लगता हो कि प्रीतिपूर्ण है, पहुंचाने जैसा है, तो उसके लिए बल इकट्ठा करना, संगठित होना, उसके लिए सहारा बनना एकदम जरूरी है। तो उसके लिए तो डिटेल्स में सोचें, विचार करें। लेकिन ये सारी बातें जो मुझे सुझाई हैं, ये सब ठीक हैं।
#1. युवा-क्रांति की रूप-रेखा
#2. पहले विचार, फिर निर्विचार
#3. मन से मुक्ति
#4. विश्वास नहीं—स्वानुभव
#5. संन्यास और अंतस-क्रांति
#6. निजता की घोषणा
तो पहली बात, सबसे पहले तो जैसा कि धीरू भाई ने कहा: जरूर एक ऐसा संगठन चाहिए युवकों का, जो किसी न किसी रूप में सैन्य ढंग से संगठित हो। संगठन तो चाहिए ही। और जैसा काकू भाई ने भी कहा: जब तक एक अनुशासन, एक डिसिप्लिन न हो, तब तक कोई संगठन आगे नहीं जा सकता है; युवकों का तो नहीं जा सकता है।
तो काकू भाई का सुझाव और धीरू भाई का सुझाव दोनों उपयोगी हैं। चाहे रोज मिलना आज संभव न हो पाए, तो सप्ताह में तीन बार मिलें, अगर वह भी संभव न हो, तो दो बार मिलें। एक जगह इकट्ठे हों। एक नियत समय पर, घंटे-डेढ़ घंटे के लिए इकट्ठे हों। और जैसा कि एक मित्र ने कहा कि ‘मित्रता कैसे बढ़े?’ मित्रता बढ़ती है साथ में कोई भी काम करने से। मित्रता बढ़ने का और कोई रास्ता नहीं है। काकू भाई ने जो कहा, उस तरह परिचय बढ़ सकता है, मित्रता नहीं बढ़ेगी। मित्रता बढ़ती है कोई भी काम में जब हम साथ होते हैं। अगर हम एक खेल में साथ खेलें, तो मित्रता बन पाएगी, मित्रता नहीं रुक सकती है। अगर हम साथ कवायद करें, तो मित्रता बन जाएगी; अगर हम साथ गड्ढा भी खोदें, तो भी मित्रता बन जाएगी; अगर हम साथ खाना भी खाएं, तो भी मित्रता बन जाएगी। हम कोई काम साथ करें, तो मित्रता बननी शुरू होती है। हम विचार भी करें साथ बैठ कर, तो भी मित्रता बननी शुरू होगी। और वे ठीक कहते हैं कि मित्रता बनानी चाहिए। लेकिन वह सिर्फ परिचय होता है। फिर मित्रता गहरी तो होती है जब हम साथ खड़े होते हैं, साथ काम करते हैं। और अगर कोई ऐसा काम हमें करना पड़े, जिसको हम अकेला कर ही नहीं सकते, जिसको साथ ही किया जा सकता है, तो मित्रता गहरी होनी शुरू होती है।
तो यह ठीक है कि कुछ खेलने का उपाय हो, कुछ चर्चा करने का उपाय हो। बैठ कर हम साथ बात कर सकें, खेल सकें। और वह भी उचित है कि कभी हम पिकनिक का भी आयोजन करें। कभी कहीं बाहर आउटिंग के लिए भी इकट्ठे लोग जाएं। मित्रता तो तभी बढ़ती है जब हम एक-दूसरे के साथ किन्हीं कामों में काफी देर तक संलग्न होते हैं।
और एक जगह मिलना बहुत उपयोगी होगा। एक घंटे भर के लिए, डेढ़ घंटे के लिए। वहां मेरी दृष्टि है, कि जैसा उन्होंने उदाहरण दिया कुछ और संगठनों का। उन संगठनों की रूप-रेखा का उपयोग किया जा सकता है। उनकी आत्मा से मेरी कोई स्वीकृति नहीं है, उनकी धारणा और दृष्टि से मेरी कोई स्वीकृति नहीं है। पूरा विरोध है। क्योंकि वे सारी संस्थाएं, जो अब तक चलती रही हैं, एक अर्थों में क्रांति-विरोधी संस्थाएं हैं। लेकिन उनकी रूप-रेखा का पूरा उपयोग किया जा सकता है। —ओशो