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कबीर अपने को खुद कहते हैं : कहै कबीर दीवाना। एक-एक शब्द को सुनने की, समझने की कोशिश करो। क्योंकि कबीर जैसे दीवाने मुश्किल से कभी होते हैं। अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। और उनकी दीवानगी ऐसी है कि तुम अपना अहोभाग्य समझना अगर उनकी सुराही की शराब से एक बूंद भी तुम्हारे कंठ में उतर जाए। अगर उनका पागलपन तुम्हें थोड़ा सा भी छू ले तो तुम स्वस्थ हो जाओगे। उनका पागलपन थोड़ा सा भी तुम्हें पकड़ ले, तुम भी कबीर जैसा नाच उठो और गा उठो, तो उससे बड़ा कोई धन्यभाग नहीं है। वही परम सौभाग्य है। सौभाग्यशालियों को ही उपलब्ध होता है। ओशो पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु: भाव और विचार में कैसे फर्क करें? जीवन में गहन पीड़ा के अनुभव से भी वैराग्य का जन्म क्यों नहीं? समाधान तो मिलते हैं, पर समाधि घटित क्यों नहीं होती? भक्ति-साधना में प्रार्थना का क्या स्थान है? समर्पण कब होता है? कबीर की बातें उलटबांसी क्यों लगती है?