Product Description
साधना के सोपान और ध्यान की गहराईयों को मैडम ब्लावट्स्की ने जिन अदृश्य सूत्रों द्वारा अभिव्यक्त किया है उसे ओशो ने अपनी गरिमामंडित वाणी द्वारा मूर्त रूप दिया है। ओशो कहते हैं, ‘‘ब्लावट्स्की की यह पुस्तक, ‘समाधि के सप्त द्वार’ वेद, बाइबल, कुरान, महावीर, बुद्ध के वचन की हैसियत की है।’’
#1: स्रोतापन्न बन
#2: प्रथम दर्शन
#3: सम्यक दर्शन
#4: सम्यक जीवन
#5: प्रवेश द्वार
#6: क्षांति
#7: घातक छाया
#8: अस्तित्व से तादात्म्य
#9: स्वामी बन
#10: आगे बढ़
#11: मन के पार
#12: सावधान!
#13: समय और तू
#14: तितिक्षा
#15: बोधिसत्व बन!
#16: ऐसा है आर्य मार्ग
#17: प्राणिमात्र के लिए शांति
ध्यान मृत्यु जैसा है। मरते वक्त अकेले जाना होगा, फिर आप न कह सकेंगे कि कोई साथ चले। सब संगी-साथी जीवन के हैं, मृत्यु में कोई संगी-साथी न होगा। और ध्यान एक भांति की मृत्यु है, इसमें भी अकेले ही जाना होगा। और ऐसा भी हो सकता है कि कोई आपके साथ मरने को भी राजी हो जाए, आपके साथ ही आत्महत्या कर ले; यद्यपि यह आत्महत्या भी जीवन में ही साथ दिखाई पड़ेगी, मृत्यु में तो दोनों अलग-अलग हो जाएंगे। क्योंकि सब संगी-साथी शरीर के हैं, शरीर के छूटते ही कोई संग-साथ नहीं है। लेकिन फिर भी यह हो सकता है कि दो व्यक्ति साथ-साथ मरने को राजी हो जाएं। दो प्रेमी साथ-साथ ही नियाग्रा में कूद पड़ें, यह हो सकता है। यह हुआ है। लेकिन ध्यान में तो इतना भी नहीं हो सकता कि दो व्यक्ति साथ-साथ कूद पड़ें। क्योंकि ध्यान का तो शरीर से इतना भी संबंध नहीं है। मृत्यु का तो शरीर से थोड़ा संबंध है। ध्यान तो नितांत ही आंतरिक यात्रा है। ध्यान तो शुरू ही वहां होता है, जहां शरीर समाप्त हो रहा है। जहां शरीर की सीमा आती है, वहीं से तो ध्यान की यात्रा शुरू होती है। वहां कोई संगी-साथी नहीं है।… अकेले होने का डर ही; हमारी बाधा है,परमात्मा की तरफ जाने में। और उसकी तरफ तो वही जा सकेगा, जो पूरी तरह अकेला होने को राजी है। हम तो परमात्मा की भी बात इसीलिए करते हैं कि जब कोई भी साथ न होगा, तो कम से कम परमात्मा तो साथ होगा। हम तो उसे भी संगी-साथी की तरह खोजते हैं। इसलिए जब हम अकेले होते हैं, अंधेरे में होते हैं, जंगल में भटक गए होते हैं, तो हम परमात्मा की याद करते हैं। वह याद भी अकेले होने से बचने की कोशिश है। वहां भी हम किसी दूसरे की कल्पना करते हैं कि कोई साथ है। कोई न हो साथ तो कम से कम परमात्मा साथ है; लेकिन साथ हमें चाहिए ही। और जब तक हमें साथ चाहिए, तब तक परमात्मा से कोई साथ नहीं हो सकता। उसकी तरफ तो जाता ही वह है, जो अकेला होने को राजी है। —ओशो
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