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आज सारी मनुष्यता बीमार है। प्रकृति के चारों तरफ दीवालें उठा दी गई हैं और आदमी उनके भीतर बैठ गया है। और यह आदमियत स्वस्थ नहीं हो सकेगी जब तक कि चारों तरफ उठी हुईं दीवालों को हम गिरा कर प्रकृति से वापस संबंध न बांध सकें।
#1: विस्मय का भाव
#2: जीवन में आनंद की खोज
#3: जीवन में तीव्रता
#4: जीवन एक अनंत निरंतरता है
#5: अनौपचारिक दृष्टि
जो विस्मय-विमुग्ध हो जाता है उसकी विस्मय-विमुग्धता, उसके आश्चर्य का भाव सारे जगत को एक रहस्य में, एक मिस्टरी में परिणित कर देता है। भीतर विस्मय है, तो बाहर रहस्य उत्पन्न हो जाता है। भीतर रहस्य न हो, भीतर विस्मय न हो, तो बाहर रहस्य के उत्पन्न होने की कोई संभावना नहीं है। जो भीतर विस्मय है, वही बाहर रहस्य है। और जिसके प्राणों में रहस्य की जितनी प्रतिछवि अंकित होती है वह उतना ही परमात्मा के निकट पहुंच जाता है।
लोग कहते हैं, परमात्मा एक रहस्य है। और मैं आपसे कहना चाहूंगा, जहां रहस्य है वहीं परमात्मा है। रहस्य ही परमात्मा है। वह जो मिस्टीरियस है, वह जो जीवन में अबूझ है, वह जो जीवन में अव्याख्येय है, वह जिसे जीवन में समझाना और समझना असंभव है, जो बुद्धि की समस्त सीमाओं को पार करके जो बुद्धि की समस्त सामर्थ्य से दूर रह जाता है, अतीत रह जाता है, वह जो ट्रांसेडेंटल है, वह जो भावातीत है, वही प्रभु है।
लेकिन उस प्रभु को जानने के लिए धीरे-धीरे कि हमारे भीतर विस्मय की क्षमता गहरी से गहरी होती चली जाए, हमारे पास ऐसी आंखें हों जो निपट प्रश्नवाचक ढंग से सारे जीवन को देखने के लिए पात्र हो जाएं, जो पूछें और जिनके पास कोई उत्तर न हो, जो पूछें और मौन खड़े रह जाएं। जिनका प्रश्न अंतरिक्ष में गूंजता रह जाए और जिनके पास कोई भी उत्तर न हो, उनके प्राणों का संबंध उससे हो जाता है जो जीवन का सत्य है, जहां जीवन का मंदिर है।
विस्मय कर देता है मनुष्य को विनम्र। विस्मय अकेली ह्यूमिलिटी है। विस्मय में ही विनम्रता उत्पन्न होती है। क्योंकि जब मुझे ज्ञात होता है कि मैं नहीं जानता हूं, तो मेरे अहंकार को खड़े होने की कोई भी जगह नहीं रह जाती। ज्ञान अहंकार को मजबूत कर देता है, विस्मय अहंकार को विदा कर देता है। बच्चों के पास अहंकार नहीं होता, बूढ़ों के पास इकट्ठा हो जाता है। अज्ञानी के पास अहंकार नहीं होता, ज्ञानी के पास इकट्ठा हो जाता है। अज्ञान का जो बोध है, इस बात की जो स्मृति है कि मैं नहीं जानता हूं, वह मनुष्य के भीतर सख्त गांठ को पिघला देती है जिसे हम अहंकार कहते हैं। और वह गांठ जितनी मजबूत होती चली जाए उतना ही मनुष्य अंधा हो जाता है। क्योंकि उसे फिर प्रत्येक चीज मालूम पड़ती है कि मैं जानता हूं, और उसके जीवन में रहस्य, मिस्टरी जैसी कोई भी चीज नहीं रह जाती है। —ओशो
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