Product Description
इन प्रवचनों में महावीर वाणी की व्याख्या करते हुए ओशो ने साधना जगत से जुड़े गूढ़ सूत्रों को समसामयिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इन सूत्रों में सम्मिलित हैं–समय और मृत्यु का अंतरबोध, अलिप्तता और अनासक्ति का भावबोध, मुमुक्षा के चार बीज, छह लेश्याएं: चेतना में उठी लहरें इत्यादि। महावीर के ये साधना-सूत्र हमारी अंतर्यात्रा को सुगम बनाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
#19: धर्म : एकमात्र शरण (धम्म-सूत्र-2)
#20: धर्म का मार्ग : सत्य का सीधा साक्षात् (धम्म-सूत्र-3)
#21: सत्य सदा सार्वभौम है (सत्य-सूत्र)
#22: कामवासना है दूसरे की खोज (ब्रह्मचर्य-सूत्र : 1)
#23: ब्रह्मचर्य : कामवासना से मुक्ति (ब्रह्मचर्य-सूत्र : 2)
#24: संग्रह : अंदर के लोभ की झलक (अपरिग्रह-सूत्र)
#25: अरात्रि-भोजन : शरीर-ऊर्जा का संतुलन (अरात्रि-भोजन-सूत्र)
#26: विनय शिष्य का लक्षण है (विनय-सूत्र)
#27: मनुष्यत्व : बढ़ते हुए होश की धारा (चतुरंगीय-सूत्र)
#28: समय और मृत्यु का अंतर्बोध (अप्रमाद-सूत्र : 1)
#29: अलिप्तता और अनासक्ति का भावबोध (अप्रमाद-सूत्र : 2)
#30: एक ही नियम : होश (प्रमाद-स्थान-सूत्र : 1)
#31: सारा खेल कामवासना का (प्रमाद-स्थान-सूत्र : 2)
#32: ये चार शत्रु (कषाय-सूत्र)
#33: अकेले ही है भोगना (अशरण-सूत्र)
#34: यह नि:श्रेयस का मार्ग है (पंडित-सूत्र)
#35: आप ही हैं अपने परम मित्र (आत्म-सूत्र : 1)
#36: साधना का सूत्र : संयम (आत्म-सूत्र : 2)
अरस्तू ने कहा है कि यदि मृत्यु न हो, तो जगत में कोई धर्म भी न हो। ठीक ही है उसकी बात, क्योंकि अगर मृत्यु न हो, तो जगत में कोई जीवन भी नहीं हो सकता। मृत्यु केवल मनुष्य के लिए है। इसे थोड़ा समझ लें। पशु भी मरते हैं, पौधे भी मरते हैं, लेकिन मृत्यु मानवीय घटना है। पौधे मरते है, लेकिन उन्हें अपनी मृत्यु का कोई बोध नहीं है। पशु भी मरते हैं, लेकिन अपनी मृत्यु के संबंध में चिंतन करने में असमर्थ हैं। तो मृत्यु केवल मनुष्य की ही होती है, क्योंकि मनुष्य जान कर मरता है, जानते हुए मरता है। मृत्यु निश्चित है, ऐसा बोध मनुष्य को है। चाहे मनुष्य कितना ही भुलाने की कोशिश करे, चाहे कितना ही अपने को छिपाए, पलायन करे, चाहे कितने ही आयोजन करे सुरक्षा के, भुलावे के; लेकिन हृदय की गहराई में मनुष्य जानता है कि मृत्यु से बचने का कोई उपाय नहीं है। मृत्यु के संबंध में पहली बात तो यह खयाल में ले लेनी चाहिए कि मनुष्य अकेला प्राणी है जो मरता है। मरते तो पौधे और पशु भी है, लेकिन उनके मरने का भी बोध मनुष्य को होता है, उन्हें नहीं होता। उनके लिए मृत्यु एक अचेतन घटना है। और इसलिए पौधे और पशु धर्म को जन्म देने में असमर्थ हैं। जैसे ही मृत्यु चेतन बनती है, वैसे ही धर्म का जन्म होता है। जैसे ही यह प्रतीति साफ हो जाती है कि मृत्यु निश्चित है, वैसे ही जीवन का सारा अर्थ बदल जाता है; क्योंकि अगर मृत्यु निश्चित है तो फिर जीवन की जिन क्षुद्रताओं में हम जीते हैं उनका सारा अर्थ खो जाता है। मृत्यु के संबंध में दूसरी बात ध्यान में ले लेनी जरूरी है कि वह निश्चित है। निश्चित का मतलब यह नहीं कि आपकी तारीख, घड़ी निश्चित है। निश्चित का मतलब यह कि मृत्यु की घटना निश्चित है। होगी ही। लेकिन अगर यह भी बिलकुल साफ हो जाए कि मृत्यु निश्चित है, होगी ही, तो भी आदमी निश्चिंत हो सकता है। जो भी निश्चित हो जाता है, उसके बाबत हम निश्चिंत हो जाते हैं, चिंता मिट जाती है। मृत्यु के संबंध में तीसरी बात महत्वपूर्ण है, और वह यह है कि मृत्यु निश्चित है, लेकिन एक अर्थ में अनिश्चित भी है। होगी तो, लेकिन कब होगी, इसका कोई भी पता नहीं। होना निश्चित है, लेकिन कब होगी, इसका कोई भी पता नहीं है। निश्चित है और अनिश्चित भी। होगी भी, लेकिन तय नहीं है, कब होगी। इससे चिंता पैदा होती है। जो बात होने वाली है, और फिर भी पता न चलता हो, कब होगी; अगले क्षण हो सकती है, और वर्षों भी टल सकती है, विज्ञान की चेष्टा जारी रही तो शायद सदियों भी टल सकती हैं, इससे चिंता पैदा होती है। —ओशो