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सहजोबाई के ये वक्तव्य कोई बड़े काव्य नहीं हैं, इनमें कोई बड़ी कविता नहीं है। पर इसमें सीधी चोट है। इसमें कोई बड़ी लफ्फाजी नहीं है, कोई कला नहीं है। यह सीधी-सीधी बात है–एक साधारण, शुद्ध हृदय स्त्री की बात है।
#1: रस बरसै मैं भीजूं
#2: बहना स्वधर्म है
#3: पांव पड़ै कित कै किती
#4: हरि सम्हाल तब लेह
#5: जो सोवै तो सुन्न में
#6: भक्त में भगवान का नर्तन
#7: पारस नाम अमोल ह
#8: जलाना अंतर्प्रकाश को
#9: सदगुरु ने आंखें दयीं
#10: निस्चै कियो निहार
बिन घन परत फुहार! यह वार्तामाला एक नई ही यात्रा होगी। मैं अब तक मुक्तपुरुषों पर बोला हूं। पहली बार एक मुक्तनारी पर चर्चा शुरू करता हूं। मुक्तपुरुषों पर बोलना आसान था। उन्हें मैं समझ सकता हूं–वे सजातीय हैं। मुक्तनारी पर बोलना थोड़ा कठिन होगा–वह थोड़ा अजनबी रास्ता है। ऐसे तो पुरुष और नारी अंतर्तम में एक हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्तियां बड़ी भिन्न-भिन्न हैं। उनके होने का ढंग, उनके दिखाई पड़ने की व्यवस्था, उनका वक्तव्य, उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्न है बल्कि विपरीत है। अब तक किसी मुक्तनारी पर नहीं बोला। तुम थोड़ा मुक्तपुरुषों को समझ लो, तुम थोड़ा मुक्ति का स्वाद चख लो, तो शायद मुक्त नारी को समझना भी आसान हो जाए। जैसे सूरज की किरण तो सफेद है, पर प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टूट जाती है। हरा रंग लाल रंग नहीं है, और न लाल रंग हरा रंग है; यद्यपि दोनों ही एक ही किरण से टूट कर बने हैं, और दोनों अंततः मिल कर पुनः एक किरण हो जाएंगे। टूटने के पहले एक थे, मिलने के बाद फिर एक हो जाएंगे, पर बीच में बड़ा फासला है; और फासला बड़ा प्रीतिकर है। बड़ा भेद है बीच में, और भेद मिटना नहीं चाहिए। भेद सदा बना रहे, क्योंकि उसी भेद में जीवन का रस है। लाल लाल हो, हरा हरा हो। तभी तो हरे वृक्षों पर लाल फूल लग जाते हैं। हरे वृक्षों पर हरे फूल बड़ी शोभा न देंगे। लाल वृक्षों पर लाल फूल फूल जैसे न लगेंगे। परमात्मा में तो स्त्री और पुरुष एक हैं। वहां तो किरण सफेद हो जाती है। लेकिन अस्तित्व में, प्रकट लोक में, अभिव्यक्ति में बड़े भिन्न हैं; और उनकी भिन्नता बड़ी प्रीतीकर है। उनके भेद को मिटाना नहीं है, उनके भेद को सजाना है। उनके भेद को नष्ट नहीं करना है, उनके भीतर छिपे अभेद को देखना है। स्त्री और पुरुष में एक ही स्वर दिखाई पड़ने लगे–बिना भेद को मिटाए–तो तुम्हारे पास आंख है। वीणावादक वीणा के तारों को छेड़ता है। बहुत स्वर पैदा होते हैं। अंगुलियां वही हैं, तार भी वही हैं, छेड़खानी का थोड़ा सा भेद है; पर बड़े भिन्न स्वर पैदा होते हैं। सौभाग्य है कि भिन्न स्वर पैदा होते हैं, नहीं तो संगीत का कोई उपाय न था। अगर एक ही स्वर होता तो बड़ा बेसुरा हो गया होता, बड़ी ऊब पैदा होती। —ओशो