Product Description
घड़ी दो घड़ी चौबीस घंटे में चुप बैठे रहो, कुछ न करो – बस शून्यवत! और उसी शून्य में धीरे-धीरे भीतर की शमा प्रकट होने लगेगी, धुआं कट जाएगा। और जिस दिन भीतर का धुआं कटता है, आंखें स्पष्ट देखने में समर्थ हो जाती हैं—उस दिन तुम परमात्मा हो, सारा अस्तित्व परमात्मा है। और वह अनुभूति आनंद है, मुक्ति है, निर्वाण है।
अनुक्रम
#1: जीवित गुरु–जिवंत धर्म
#2: विज्ञान और धर्म का समन्वय
#3: सारे धर्म मेरे हैं
#4: स्वस्थ हो जाना उपनिषद है
#5: डूबने का आमंत्रण
#6: मैं तो एक चुनौती हूं
#7: संन्यास यानी ध्यान
#8: जिन खोजा तिन पाइयां
#9: आओ, बैठो–शून्य की नाव में
#10: नये सूर्य को नमस्कार
जीवन ही खतरनाक है। मृत्यु सुविधापूर्ण है। मृत्यु से ज्यादा और आरामदायक कुछ भी नहीं। इसलिए लोग मृत्यु को वरण करते हैं, जीवन का निषेध। लोग ऐसे जीते हैं, जिसमें कम से कम जीना पड़े, न्यूनतम–क्योंकि जितने कम जीएंगे उतना कम खतरा है; जितने ज्यादा जीएंगे उतना ज्यादा खतरा है। जितनी त्वरा होगी जीवन में उतनी ही आग होगी, उतनी ही तलवार में धार होगी। जीवन को गहनता से जीना, समग्रता से जीना–पहाड़ों की ऊंचाइयों पर चलना है। ऊंचाइयों से कोई गिर सकता है। जो गिरने से डरते हैं, वे समतल भूमि पर सरकते हैं; चलते भी नहीं, घिसटते हैं। उड़ने की तो बात दूर। और सदगुरु के पास होना तो सूर्य की ओर उड़ान है। शिष्य तो ऐसे है जैसे सूर्यमुखी का फूल; जिस तरफ सूरज घूमता, उस तरफ शिष्य घूम जाता। सूर्य पर उसकी श्रद्धा अखंड है। सूर्य ही उसका जीवन है। सूर्य नहीं तो वह नहीं। जैसे ही सूरज डूबा, सूर्यमुखी का फूल बंद हो जाता है। जैसे ही सूरज ऊगा, सूर्यमुखी खिला, आह्लादित हुआ, नाचा हवाओं में, मस्त हुआ, पी धूप। उसके जीवन में तत्क्षण नृत्य आ जाता है। फ्रेड्रिक नीत्शे का प्रसिद्ध वचन है: ‘लिव डेंजरसली। खतरनाक ढंग से जीओ।’ सच तो यह है, इसमें दो ही शब्द हैं–‘खतरनाक ढंग’ और ‘जीना।’ एक ही शब्द काफी है। दो शब्दों में पुनरुक्ति है। जीना ही खतरनाक ढंग से जीना है। और तो कोई जीने का उपाय नहीं, और तो कोई विधि नहीं। इसलिए सदियों-सदियों से धर्म ने जीवन-निषेध का रूप लिया। यह कायरों का ढंग है। यह कायरों की जीवन-शैली है–भागो, जीओ मत; छिप रहो किसी दूर गुफा में, कहीं हिमालय में, जहां जीवन न के बराबर होगा। क्या होगा जीवन हिमालय की गुफा में? क्या जीवन हो सकता है जहां संबंध नहीं? जितने संबंध हैं उतना जीवन है–उतनी जीवन की गहनता है, सघनता है, विस्तार है। जी भर कर जीने का अर्थ होता है: अनंत-अनंत संबंधों में जीओ। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: भागना मत, जागना! जाग कर जीओ–यह धर्म है। भाग कर जीए–यह तो धर्म भी नहीं, जीवन भी नहीं। इससे तो बेहोश होकर भी जो जी रहा है वह भी कम से कम जी तो रहा है! कम से कम उसके प्राणों में धड़कन तो है! लेकिन सदियों-सदियों से आदमी ने आत्मघाती धर्मों को चुना है। कसूर धर्मों का नहीं है। धर्म तो आत्मघाती हो ही नहीं सकता। लेकिन आदमी डरपोक है, भयभीत है, भीरु है। इसलिए उसने सारे धर्मों को अपनी भीरुता के वस्त्र पहना दिए। —ओशो
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