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अज्ञात के स्वर जिन्हें सुनाई दें; उनके लिए यह प्रश्नोत्तर माला अदभुत रूप से मार्गदर्शक हो सकती है। अज्ञात के निमंत्रण पर जिस मार्ग पर चलना है; उसके विषय में ओशो कहते हैं : ‘‘एक ही कदम में यात्रा पूरी हो सकती है; बस साहस की बात है। एक क्षण में निर्वाण का अमृत तुम पर बरस सकता है, बस प्रेम से भरी छाती चाहिए।’’
अनुक्रम
#1: सत्संग : हृदय का हृदय से मौन मिलन
#2: प्रेम : ध्यान की ज्योति
#3: रसो वै स: की धूम
#4: अंतिम स्वर्ण सोपान : परम मौन
मनुष्य का मन मनुष्य के भीतर भेद का सूत्र है। जब तक मन है तब तक भेद है। मन एक नहीं, अनेक है। मन के पार गए कि अनेक के पार गए। जैसे ही मन छूटा, विचार छूटे, वैसे ही भेद गया, द्वैत गया, दुई गई, दुविधा गई। फिर जो शेष रह जाता है वह अभिव्यक्ति योग्य भी नहीं है। क्योंकि अभिव्यक्ति भी विचार में करनी होगी। विचार में आते ही फिर खंडित हो जाएगा। मन के पार अखंड का साम्राज्य है। मन के पार ‘मैं’ नहीं है, ‘तू’ नहीं है। मन के पार हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है, ईसाई नहीं है। मन के पार अमृत है, भगवत्ता है, सत्य है। और उसका स्वाद एक है। फिर कैसे कोई उस अ-मनी दशा तक पहुंचता है, यह बात और। जितने मन हैं उतने मार्ग हो सकते हैं। क्योंकि जो जहां है वहीं से तो यात्रा शुरू करेगा। और इसलिए हर यात्रा अलग होगी। बुद्ध अपने ढंग से पहुंचेंगे, महावीर अपने ढंग से पहुंचेंगे, जीसस अपने ढंग से, जरथुस्त्र अपने ढंग से। लेकिन यह ढंग, यह शैली, यह रास्ता तो छूट जाएगा मंजिल के आ जाने पर। रास्ते तो वहीं तक हैं जब तक मंजिल नहीं आ गई। सीढ़ियां वहीं तक हैं जब तक मंदिर का द्वार नहीं आ गया। और जैसे ही मंजिल आती है, रास्ता भी मिट जाता है, राहगीर भी मिट जाता है। न पथ है वहां, न पथिक है वहां। जैसे नदी सागर में खो जाए। यूं खोती नहीं, यूं सागर हो जाती है। एक तरफ से खोती है–नदी की भांति खो जाती है। और यह अच्छा है कि नदी की भांति खो जाए। नदी सीमित है, बंधी है, किनारों में आबद्ध है। दूसरी तरफ से नदी सागर हो जाती है। यह बड़ी उपलब्धि है। खोया कुछ भी नहीं; या खोईं केवल जंजीरें, खोया केवल कारागृह, खोई सीमा और पाया असीम! दांव पर तो कुछ भी न लगाया और मिल गई सारी संपदा जीवन की, सत्य की; मिल गया सारा साम्राज्य। नदी खोकर सागर हो जाती है। मगर खोकर ही सागर होती है। और हर नदी अलग ढंग से पहुंचेगी। गंगा अपने ढंग से और सिंधु अपने ढंग से और ब्रह्मपुत्र अपने ढंग से। लेकिन सब सागर में पहुंच जाती हैं। और सागर का स्वाद एक है। पलटू यही कह रहे हैं: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट। नदी को पार करना हो तो अलग-अलग घाटों से नदी पार की जा सकती है। अलग-अलग नावों में बैठा जा सकता है। अलग-अलग मांझी हो सकते हैं। अलग होंगी पतवारें। लेकिन उस पार पहुंच कर सब अलगपन मिट जाएगा। फिर कौन पूछता है–‘किस नाव से आए? कौन था मांझी? नाव का बनाने वाला कारीगर कौन था? नाव इस लकड़ी की बनी थी या उस लकड़ी की बनी थी?’ उस पार पहुंचे कि इस पार का सब भूला। ये घाट, ये नदी, ये पतवार, ये मांझी, ये सब उस पार उतरते ही विस्मृत हो जाते हैं। और उस पार ही चलना है। —ओशो
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