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दस जीवन-सूत्र
मेरी दस आज्ञाएं (Ten Commandments) पूछी हैं। बड़ी कठिन बात है।
क्योंकि, मैं तो किसी भी भांति की आज्ञाओं के विरोध में हूं। फिर भी, एक खेल रहेगा इसलिए लिखता हूं:
1. किसी की आज्ञा कभी मत मानो जब तक कि वह स्वयं की ही आज्ञा न हो।
2. जीवन के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है।
3. सत्य स्वयं में है, इसलिए उसे और कहीं मत खोजना।
4. प्रेम प्रार्थना है।
5. शून्य होना सत्य का द्वार है। शून्यता ही साधना है, साध्य है, सिद्धि है।
6. जीवन है अभी और यहीं।
7. जीओ और जागे हुए।
8. तैरो मत–बहो।
9. मरो प्रतिपल ताकि प्रतिपल नये हो सको।
10. खोजो मत। जो है–है। रुको और देखो।
: प्रेम के दो रूप: काम और करुणा प्रेम और दया में बहुत भेद है।
प्रेम में दया है।
लेकिन दया में प्रेम नहीं है।
इसलिए जो हो उसे हमें वैसा ही जानना चाहिए।
प्रेम है तो प्रेम–दया है तो दया।
एक को दूसरा समझना या समझाना व्यर्थ की चिंताओं को जन्म देता है।
प्रेम साधारणतः असंभव ही हो गया है।
क्योंकि मनुष्य जैसा है, वैसा ही वह प्रेम में नहीं हो सकता है।
प्रेम में होने के लिए मन का पूर्णतया शून्य हो जाना आवश्यक है।
और हम मन से ही प्रेम कर रहे हैं।
इसलिए हमारा प्रेम निम्नतम हो तो काम (Sex) होता है और श्रेष्ठतम हो तो करुणा (Compassion)।
लेकिन प्रेम काम और करुणा दोनों का प्रतिक्रमण है।
इसलिए जो है उसे समझें।
और जो होना चाहिए, उसके लिए प्रयास न करें।
जो है, उसकी स्वीकृति और समझ से, जो होना चाहिए, उसका जन्म होता है।
ओशो
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