Product Description
अपने व्यक्तिगत रूपांतरण तथा सामाजिक परिवेश के बदलाहट में उत्सुक हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह पुस्तक एक अप्रतिम उपहार है। इस पुस्तक में संकलित अठारह क्रांतिकारी प्रवचनों में ओशो ने अपनी अभिनव दृष्टि दी है कि किस प्रकार इस पृथ्वी पर एक नए मनुष्य, एक नए परिवार एवं एक नए समाज का जन्म हो सकता है। इसमें वे सभी विषय हैं जो हमारे जीवन के सभी आयामों को छूते हैं; वे सभी प्रश्न हैं, जो सदियों से हमारे प्राणों को छलनी कर रहे हैं। ओशो ने इन प्रश्नों के कोई दार्शनिक उत्तर नहीं दिए हैं। उनके समाधान बहुत व्यावहारिक हैं। नए मनुष्य की, नए समाज की—यह पुस्तक एक पूर्ण रूप-रेखा है, एक मेनिफेस्टो है।
#1:नये समाज की खोज का आधार : नया मनुष्य
#2:नये समाज का जन्म : सुख की नींव पर
#3:जीवन-क्रांति का प्रारंभ : भय के साक्षात्कार से
#4:अंतस की बदलाहट ही एकमात्र बदलाहट
#6:शून्य की दिशा
#7:नये समाज का आधार—भय नहीं, प्रेम
#8:मैं पूंजीवाद के समर्थन में हूं
#9:अध्यात्म की आधारशिला है भौतिकवाद
#10:जिंदगी निरंतर चुनाव है
#11:विश्व-शांति के तीन उपाय
#12:समाज और सत्य
#14:सत्य को बोलने का साहस
#15:निर्विचार अनुभव ही सनातन हो सकता है
#16:जीवन एक समग्रता है
#17:सफलता नहीं—सुफलता
#18:नये परिवार का आधार : विवाह नहीं, प्रेम
‘नये समाज की खोज’ नई खोज नहीं है, शायद इससे ज्यादा कोई पुरानी खोज न होगी। जब से आदमी है तब से नये की खोज कर रहा है। लेकिन हर बार खोजा जाता है नया, और जो मिलता है वह पुराना ही सिद्ध होता है। क्रांति होती है, परिवर्तन होता है, लेकिन फिर जो निकलता है वह पुराना ही निकलता है। शायद इससे बड़ा कोई आश्चर्यजनक, इससे बड़ी कोई अदभुत घटना नहीं है कि मनुष्य की अब तक की सारी क्रांतियां असफल हो गई हैं। समाज पुराना का पुराना है। सब तरह के उपाय किए गए हैं, और समाज नया नहीं हो पाता। समाज क्यों पुराना का पुराना रह जाता है? नये समाज की खोज पूरी क्यों नहीं हो पाती? इस संबंध में पहली बात मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि एक बहुत गहरी भूल होती रही है इसलिए नया समाज नहीं जन्म सका। और वह भूल यह होती रही है कि समाज को बदलने की कोशिश चलती है, आदमी को बिना बदले हुए। और समाज सिर्फ एक झूठ है; समाज सिर्फ एक शब्द है। समाज को कहीं ढूंढने जाइएगा तो मिलेगा नहीं। जहां भी मिलता है आदमी मिलता है, समाज कहीं नहीं मिलता! जहां भी जाइए व्यक्ति मिलता है, समाज कहीं नहीं मिलता! समाज को खोजा ही नहीं जा सकता, नया करना तो बहुत मुश्किल है। मिल जाता तो नया भी कर सकते थे। समाज मिलता ही नहीं; जब मिलता है तब व्यक्ति मिलता है। और परिवर्तन के लिए जो चेष्टा चलती है वह समाज के परिवर्तन के लिए चेष्टा चलती है। इसलिए समाज नहीं बदल पाता है। और फिर समाज मिल भी जाए तो बदलेगा कौन? यदि व्यक्ति बिना बदला हुआ है तो समाज को बदलेगा कौन? बहुत बार क्रांति होती है। फिर क्रांति के बाद पुराने आदमी के हाथ में समाज चला जाता है। गुलामी को तोड़ने की हजारों साल से कोशिश चल रही है। पुरानी गुलामी टूटती मालूम पड़ती है, टूट भी नहीं पाती कि फिर नई शक्ल में पुरानी गुलामी खड़ी हो जाती है। गुलाम बनाने वाले बदल जाते हैं और गुलाम बनाने वालों के चेहरों के रंग बदल जाते हैं, गुलाम बनाने वालों के कपड़े और झंडे बदल जाते हैं–गुलामी अपनी जगह कायम रहती है। क्योंकि आदमी का दिमाग गुलाम है, उसे बिना बदले दुनिया में कभी गुलामी नहीं टूट सकती। अंग्रेज की गुलामी टूट सकती है, मुसलमान की गुलामी टूट सकती है, हिंदू की गुलामी टूट सकती है, लेकिन गुलामी नहीं टूट सकती; गुलामी नई शक्लों में फिर खड़ी हो जाती है। पुरानी की पुरानी गुलामी फिर सिंहासन पर बैठ जाती है। —ओशो