Product Description
दरिया के शब्द सुनो, जिंदगी की थोड़ी तलाश करो–‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’
ये प्यारे सूत्र हैं, इनमें बड़ा माधुर्य है, बड़ी मदिरा है। मगर पीओगे तो ही मस्ती छाएगी। इन्हें ऐसे ही मत सुन लेना जैसे और सब बातें सुन लेते हो; इन्हें बहुत भाव-विभोर होकर सुनना। आंखें गीली हों तुम्हारी–और आंखें ही नहीं, हृदय भी गीला हो। उसी गीलेपन की राह से, उन्हीं आंसुओं के द्वार से ये दरिया के शब्द तुम्हारी हृदय-वीणा को झंकृत कर सकते हैं। और जब तक यह न हो जाए तब तक एक बात जानते ही रहना कि तुम भटके हुए हो। भूल कर भी यह भ्रांति मत बना लेना–कि मुझे क्या खोजना है! भूल कर भी इस भ्रांति में मत पड़ जाना कि मैं जानता हूं, मुझे और क्या जानना है! ओशो
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:
बुद्धिमत्ता और बौद्धिकता में क्या फर्क है ?
जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है?
नीति और धर्म में क्या भेद है?
इस संसार में इतनी हिंसा क्यों है ?
इस जगत का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
कवी और ऋषि में क्या भेद है?
संन्यास का क्या अर्थ होता है
अनुक्रम
#1: अबरि के बार सम्हारी
#2: वसंत तो परमात्मा का स्वभाव है
#3: भजन भरोसा एक बल
#4: आज जी भर देख लो तुम चांद को
#5: निर्वाण तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है
#6: मिटो: देखो: जानो
#7: सतगुरु करहु जहाज
#8: जीवन स्वयं अपनी समाधि है
#9: सतगुरु सबद सांच एह मानी
उद्धरण : दरिया कहै सब्द निरबाना – तीसरा प्रवचन : भजन भरोसा एक बल
दरिया कहै सब्द निरबाना!
निर्वाण की सुगंध उनके ही शब्दों में हो सकती है जो समग्ररूपेण मिट गए, जो नहीं हैं। जिन्होंने अपने अहंकार को पोंछ डाला। जिनके भीतर शून्य विराजमान हुआ है। उसी शून्य से संगीत उठता है निर्वाण का। जब तक बोलने वाला है तब तक निर्वाण की गंध नहीं उठेगी। जब बोलने वाला चुप हो गया, तब फिर असली बोल फूटते हैं। जब तक बांसुरी में कुछ भरा है, स्वर प्रकट न होंगे। बांसुरी तो पोली हो, बिलकुल पोली हो तो ही स्वरों की संवाहक हो पाती है।
दरिया बांस की पोली पोंगरी हैं। शब्द निर्वाण के उनसे झर रहे हैं–उनके नहीं हैं, परमात्मा के हैं। क्योंकि निर्वाण का शब्द परमात्मा के अतिरिक्त और कौन बोलेगा? और कोई बोल नहीं सकता है। और जहां से तुम्हें निर्वाण के शब्दों की झनकार मिले, वहां झुक जाना। फिर अपनी अपेक्षाएं छोड़ देना। लोग अपेक्षाएं लिए चलते हैं, इसलिए सदगुरुओं से वंचित रह जाते हैं। तुम्हारी कोई अपेक्षा के अनुकूल सदगुरु नहीं होगा। तुम्हारी अपेक्षाएं तुम्हारे अज्ञान से जन्मी हैं। तुम्हारी अपेक्षाएं तुम्हारे अज्ञान का ही हिस्सा हैं। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपेक्षाओं के अनुकूल गुरु को खोजता है। गुरु तो सदा मौजूद हैं–पृथ्वी कभी भी इतनी अभागी नहीं रही कि गुरु मौजूद न हों–लेकिन हमारी अपेक्षाएं!…
सदगुरु तो फेंकते हैं वचनरूपी बीज, पर तुम कहां लोगे उन्हें? अगर तुमने अपने सिर में लिया तो वह चलता हुआ रास्ता है; वहां इतने विचारों की भीड़ चल रही है, वहां ऐसा ट्रैफिक है कि वहां कोई बीज पनप नहीं सकता। जब तक कि तुम अपने हृदय की गीली भूमि में ही बीजों को न लो, तब तक फसल से वंचित रहोगे। और जिंदगी बड़ी उदास है। और जिंदगी इसीलिए उदास है कि जिन बीजों से तुम्हारी जिंदगी हरी होती, फूल खिलते, गंध बिखरती, उन बीजों को तुमने कभी स्वीकार नहीं किया है। और अगर तुम पूजते भी हो तो तुम मुर्दों को पूजते हो। अगर तुम फूल भी चढ़ाते हो तो पत्थरों के सामने चढ़ाते हो। अगर तुम तीर्थयात्राओं पर भी जाते हो, बाहर की तीर्थयात्राओं पर जाते हो। तीर्थयात्रा तो बस एक है–उसका नाम अंतर्यात्रा है। और सदगुरु तो केवल जीवित हो तो ही सार्थक है।…
पश्चिम नास्तिक हो गया, कारण यही है कि सदगुरु का सेतु पश्चिम में कभी बना नहीं। पूरब अब भी थोड़ा टिमटिमाता-टिमटिमाता आस्तिक है। बुझ जाएगा कब यह दीया, कहा नहीं जा सकता, हवाएं तेज हैं, आंधियां उठी हैं। चीन डूब गया नास्तिकता में, भारत के द्वार पर नास्तिकता आंधियों और बवंडरों की तरह उठ रही है। यह देश भी कभी नास्तिक हो जाएगा। अधिक लोग तो नास्तिक हो ही गए हैं–सिर्फ उनको पता नहीं है। अधिक लोग तो नास्तिक हैं ही–धर्म उनकी औपचारिकता मात्र है।
Reviews
There are no reviews yet.