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प्रश्नोत्तर प्रवचनमाला के अंतर्गत पुणे में ओशो द्वारा दिए ग्यारह प्रवचन।
जीवन जब विचार-मुक्त होता है, तो व्यक्ति एक पोली बांस की पोंगरी जैसा हो जाता। जैसे बांसुरी। फिर उससे परमात्मा के स्वर प्रवाहित होने लगते हैं। बांसुरी से गीत आता है, बांसुरी का नहीं होता। होता तो गायक का है। जिन ओंठों पर बांसुरी रखी होती है, उन ओंठों का होता है। बांसुरी तो सिर्फ बाधा नहीं देती। ऐसे ही कृष्ण बोले; ऐसे ही क्राइस्ट बोले; ऐसे ही बुद्ध बोले; ऐसे ही मोहम्मद बोले। ऐसे ही वेद के ऋषि बोले; उपनिषद के द्रष्टा बोले। और इस सत्य को अलग-अलग तरह से प्रकट किया गया। जैसे कृष्ण के वचनों को हमने कहा: श्रीमद्भगवद्गीता। अर्थ है: भगवान के वचन। कृष्ण से कुछ संबंध नहीं है। कृष्ण तो मिट गए, शून्य हो गए। फिर उस शून्य में से जो बहा, वह तो परम सत्ता का है। उस शून्य में से जो प्रकट हुआ, वह तो पूर्ण का है। और कृष्ण ऐसे शून्य हुए कि पूर्ण के बहने में जरा भी बाधा नहीं पड़ी। रंचमात्र भी नहीं। इसलिए कृष्ण को इस देश में हमने पूर्णावतार कहा। राम को नहीं कहा पूर्णावतार। परशुराम को नहीं कहा पूर्णावतार। राम अपनी मर्यादा रख कर चलते हैं। उनकी एक जीवन-दृष्टि है। उनका आग्रहपूर्ण आचरण है। वे पूरे शून्य नहीं हैं। पूर्ण की कुछ झलकें उनसे आई हैं, लेकिन पूर्ण पर भी उनकी शर्तें हैं! पूर्ण उनसे उतना ही बह सकता है, जितना उनकी शर्तों के अनुकूल हो। उनकी शर्तें तोड़ कर पूर्ण को भी बहने नहीं दिया जाएगा! इसलिए राम को इस देश के रहस्यवादियों ने अंशावतार कहा। यह प्यारा ढंग है एक बात को कहने का। समझो, तो लाख की बात है। न समझो, तो दो कौड़ी की है। अंशावतार का अर्थ यह होता है कि राम ने पूरी-पूरी स्वतंत्रता नहीं दी परमात्मा को प्रकट होने की। कोई नैतिक व्यक्ति नहीं दे सकता। नैतिक व्यक्ति का अर्थ ही यह होता है कि उसका जीवन सशर्त है। वह कहेगा, ऐसा ही हो, तो ठीक है। उसके आग्रह हैं। उसने एक परिपाटी बना ली है; एक शैली है उसकी। जैसे रेल की पटरियां और उन पर दौड़ती हुई रेलगाड़ियां। चलती तो वे भी हैं; गतिमान तो वे भी होती हैं; मगर पटरियों पर दौड़ती हैं–पटरियों से अन्यथा नहीं। नदियां भी चलती हैं, नदियां भी बहती हैं, वे भी गतिमान होती हैं, लेकिन उनकी कोई पटरियां नहीं हैं। उनके हाथ में कोई नक्शे भी नहीं हैं। कोई अज्ञात, प्राणों के अंतसचेतन में छिपा हुआ कोई राज बहाए ले जाता है उन्हें सागर की ओर। और कैसी अदभुत बात है कि छोटी से छोटी नदी भी सागर को खोज लेती है! बिना मार्ग-दर्शक के; बिना किसी का हाथ पकड़े; बिना किसी शास्त्र के; बिना किसी समय-सारणी के; बिना किसी नक्शे के! चल पड़ती है और पहुंच जाती है। और कैसी उसकी चाल है! कोई नियम में आबद्ध नहीं। जहां मिला मार्ग। कभी बाएं, कभी दाएं। कई बार लगता है कि अभी नदी बहती इस तरफ थी, अब बहने लगी उस तरफ। ऐसे कहीं पहुंचना होगा! लेकिन फिर भी हर नदी पहुंच जाती है। पहुंच ही जाती है। जो चल पड़ा, वह पहुंच ही गया। —ओशो