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जो लोग भी जीवन में क्रांति चाहते हैं, सबसे पहले उन्हें समझ लेना होगा कि बंधा हुआ आदमी कभी भी जीवन की क्रांति से नहीं गुजर सकता है। और हम सारे ही लोग बंधे हुए लोग हैं। यद्यपि हमारे हाथों पर जंजीरें नहीं हैं, हमारे पैरों में बेड़ियां नहीं हैं|
#1: सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति
#2: भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति
#3: दमन से मुक्ति
#4: न भोग, न दमन–वरन जागरण
अभी-अभी सूरज निकला। सूरज के दर्शन करता था। देखा आकाश में दो पक्षी उड़े जाते हैं। आकाश में न तो कोई रास्ता है, न कोई सीमा है, न कोई दीवाल है, न उड़ने वाले पक्षियों के कोई चरण-चिह्न बनते हैं। खुले आकाश में, जिसकी कोई सीमाएं नहीं, उन पक्षियों को उड़ता देख कर मेरे मन में एक सवाल उठा: क्या आदमी की आत्मा भी इतने ही खुले आकाश में उड़ने की मांग नहीं करती है? क्या आदमी के प्राण भी नहीं तड़फते हैं सारी सीमाओं के ऊपर उठ जाने को–सारे बंधन तोड़ देने को? सारी दीवालों के पार–वहां, जहां कोई दीवाल नहीं; वहां, जहां कोई फासले नहीं; वहां, जहां कोई रास्ते नहीं; वहां, जहां कोई चरण-चिह्न नहीं बनते–उस खुले आकाश में उठ जाने की मनुष्य की आत्मा की भी प्यास नहीं है? उस खुले आकाश का नाम ही परमात्मा है। लेकिन आदमी तो पैदा होता है, और बंधनों में बंध जाता है। चाहे पैदा कोई स्वतंत्र होता हो, लेकिन बहुत सौभाग्यशाली लोग ही स्वतंत्र जीते हैं; और बहुत कम सौभाग्यशाली लोग स्वतंत्र होकर मर पाते हैं। आदमी पैदा तो स्वतंत्र होता है, और फिर निरंतर परतंत्र होता चला जाता है। किसी आदमी की आत्मा परतंत्र नहीं होना चाहती है, फिर भी आदमी परतंत्र होता चला जाता है! तो ऐसा प्रतीत होता है कि शायद हमने परतंत्रता की बेड़ियों को फूलों से सजा रखा है; शायद हमने परतंत्रता को स्वतंत्रता के नाम दे रखे हैं; शायद हमने कारागृहों को मंदिर समझ रखा है। और इसीलिए यह संभव हो सका है कि प्रत्येक आदमी के प्राण स्वतंत्र होना चाहते हैं, और प्रत्येक आदमी परतंत्र ही जीता है और मरता है! बल्कि, ऐसा भी दिखाई पड़ता है कि हम अपनी परतंत्रता की रक्षा भी करते हैं! अगर परतंत्रता पर चोट हो, तो हमें तकलीफ भी होती है, पीड़ा भी होती है! अगर कोई हमारी परतंत्रता तोड़ देना चाहे, तो वह हमें दुश्मन भी मालूम होता है! परतंत्रता से आदमी का ऐसा प्रेम क्या है? नहीं, परतंत्रता से किसी का भी प्रेम नहीं है। लेकिन परतंत्रता को हमने स्वतंत्रता के शब्द और वस्त्र ओढ़ा रखे हैं। एक आदमी अपने को हिंदू कहने में जरा भी अनुभव नहीं करता कि मैं अपनी गुलामी की सूचना कर रहा हूं। एक आदमी अपने को मुसलमान कहने में जरा भी नहीं सोचता कि मुसलमान होना मनुष्यता के ऊपर दीवाल बनानी है। एक आदमी किसी वाद में, किसी संप्रदाय में, किसी देश में अपने को बांध कर कभी भी नहीं सोचता कि मैंने अपना कारागृह अपने हाथों से बना लिया है। बड़ी चालाकी, बड़ा धोखा आदमी अपने को देता रहा है। और सबसे बड़ा धोखा यह है कि हमने कारागृहों को सुंदर नाम दे दिए हैं;, हमने बेड़ियों को फूलों से सजा दिया है; और जो हमें बांधे हुए हैं, उन्हें हम मुक्तिदायी समझ रहे हैं! —ओशो