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भक्ति का मार्ग सरल तो है ही, सरस भी है। शांडिल्य के सरल-सरस भक्ति-सूत्रों पर बोलते हुए ओशो कहते हैं : “ये अपूर्व सूत्र हैं। शांडिल्य को सुन कर तुममें प्यास जगे, इसलिए इन सूत्रों की व्याख्या कर रहा हूं, ज्ञान न जमा लेना। ज्ञान जमा लिया, चूक गए। प्यास जगाना। ‘तुम्हारे भीतर गहन आकांक्षा उठे, अभीप्सा जगे, एक लपट बन जाए कि पाकर रहूं, कि इस अनुभव को जान कर रहूं, कि इस अनुभव को जाने बिना जीवन अकारथ है। ऐसी ज्वलंत आग तुम्हारे भीतर पैदा हो जाए; तो दूर नहीं है गंतव्य। उसी आग में अहंकार जल जाता है। उसी आग में बीज दग्ध हो जाता है और तुम्हारे भीतर जन्मों-जन्मों से छिपी हुई सुवास मुक्त आकाश में विलीन हो जाती है। उसे मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, जो नाम देना चाहो दो—उसका कोई नाम नहीं है।”
अनुक्रम
#21: भक्ति की क्यों? भगवान की क्यों नहीं?
#22: परमात्मा के प्रति राग है भक्ति
#23: गौणी-भक्ति में लगो, पराभक्ति की प्रतीक्षा करो
#24: प्रार्थना निरालंब दशा है
#25: सब जागरण उसका है
#26: संसार जड़ है, अध्यात्म फूल है
#27: विराट से मैत्री है भक्ति
#28: सुख से चुकाओ मूल्य परमात्मा को पाने का
#29: भक्ति अकर्मण्यता नहीं, अकर्ताभाव है
#30: धर्म है मनुष्य के गीत का प्रकट हो जाना
#31: पदार्थ : अणुशक्ति :: चेतना : प्रेमशक्ति
#32: अभीप्सा व प्रतीक्षा की एक साथ पूर्णता-प्रार्थना की पूर्णता
#33: विकास, क्रांति और उत्क्रांति
#34: जागरण है द्वार स्वर्ग का
#35: सदगुरु शास्त्रों का पुनर्जन्म है
#36: मौजूदगी ही उसकी है
#37: ऊर्ध्वगति का आयाम है परमात्मा
#38: जगत की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता: प्रेम
#39: प्रेम ही मंदिर है
#40: मिलन होता है
उद्धरण: अथातो भक्ति जिज्ञासा
भक्ति की क्यों? भगवान की क्यों नहीं?
साधारणतः लोग भगवान की खोज में निकलते हैं। और चूंकि भगवान की खोज में निकलते हैं इसलिए ही भगवान को कभी उपलब्ध नहीं हो पाते। भगवान की खोज ऐसी ही है जैसे अंधा आदमी प्रकाश की खोज में निकले। अंधे को आंख खोजनी चाहिए, प्रकाश नहीं। आंख का उपचार खोजना चाहिए, प्रकाश नहीं। प्रकाश तो है, उसकी खोज की जरूरत भी नहीं है; आंख नहीं है। इसलिए जो व्यक्ति भगवान की खोज में निकला, वह भटका। जो व्यक्ति भक्ति की खोज में निकलता है, वह पहुंचता है।
भक्ति यानी आंख। भक्ति यानी कुछ अपने भीतर रूपांतरित करना है। भक्ति का अर्थ हुआ, एक क्रांति से गुजरना है।
अथातोभक्तिजिज्ञासा!
साधारणतः कोई विचार करेगा तो लगेगा सूत्र शुरू होना चाहिए था–अब भगवान की जिज्ञासा। लेकिन सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। सूत्र भगवान की बात ही नहीं उठाता। भगवान से तुम्हारा संबंध ही कैसे होगा? भगवान से संबंधित होने वाला हृदय अभी नहीं, अभी वह तरंग नहीं उठती भीतर जो जोड़ दे तुम्हें। अभी आंखें अंधी हैं, अभी कान बहरे हैं। इसलिए भगवान को छोड़ो। उस चिंता में न पड़ो। भक्ति को जगा लो! इधर भक्ति जगी, उधर भगवान मिला। इधर आंख खुली, उधर सूरज के दर्शन हुए। इधर कानों का बहरापन मिटा कि नाद ही नाद है, ओंकार ही ओंकार छाया हुआ है। सारा जगत अनाहत की ही अभिव्यक्ति है। इधर हृदय में तरंगें उठीं कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह दिखाई पड़ा।
एक तो बुद्धि है, जो विचार करती है; और एक हृदय है, जो अनुभव करता है। हमारे अनुभव की ग्रंथि बंद रह गई है। खुली नहीं; गांठ बनी रह गई है। हमारे अनुभव करने की क्षमता फूल नहीं बनी। इसलिए प्रश्न उठता है–भगवान है या नहीं? लेकिन प्रश्न अगर जरा ही गलत हुआ तो उत्तर कभी सही नहीं हो पाएगा। भक्ति की जिज्ञासा करो!
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, भगवान कहां है?
मैं उनसे पूछता हूं, भक्ति कहां है? भक्ति पहले होनी चाहिए।
लेकिन उनके प्रश्न की भी बात विचारणीय है। वे कहते हैं, जब तक हमें भगवान का पता न हो, तब तक भक्ति कैसे हो? किसकी भक्ति करें? कैसे करें? कहां जाएं? किसके चरणों में झुकें? भगवान का भरोसा तो पहले होना चाहिए। तभी तो हम झुक सकेंगे।
—ओशो