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मन टटोलता है। उस टटोलने से प्रश्न ही प्रश्न उठते हैं। प्रेम के पास आंख है। वह प्रेम की आंख ही उत्तर है। ओशो कहते हैं : ‘‘प्रेम – संसार की समझ में आता नहीं, आ सकता नहीं; आ जाए तो संसार स्वर्ग न हो जाए!” #1: गुरु मारैं प्रेम का बान #2: तुम अभी थे यहां #3: अंत एक दिन मरौगे रे #4: भोर कब होगी? #5: चरन गहो जाय साध के #6: मुरदे मुरदे लड़ि मरे #7: अब मैं अनुभव पदहिं समाना #8: प्रभु, मुझ परअनुकंपा करें #9: दास मलूका यों कहै #10: संन्यास है मैं से मुक्ति बाबा मलूकदास! यह नाम ही ऐसा प्यारा है! तन-मन-प्राण में मिसरी घोल दे! ऐसे तो बहुत संत हुए हैं, सारा आकाश संतों के जगमगाते तारों से भरा है, पर मलूकदास की तुलना किसी और से नहीं हो सकती। मलूकदास बेजोड़ हैं। उनकी अद्वितीयता उनके अल्हड़पन में है–मस्ती में, बेखुदी में। यह नाम मलूक का मस्ती का पर्यायवाची हो गया। इस नाम में ही कुछ शराब है। यह नाम ही दोहराओ तो भीतर नाच उठने लगे। मलूकदास न तो कवि हैं, न दार्शनिक हैं, न धर्मशास्त्री हैं। दीवाने हैं, परवाने हैं! और परमात्मा को उन्होंने ऐसे जाना है जैसे परवाना शमा को जानता है। वह पहचान बड़ी और है। दूर-दूर से नहीं, परिचय मात्र नहीं है वह पहचान–अपने को गंवा कर, अपने को मिटा कर होती है। रामदुवारे जो मरे! राम के द्वार पर मर कर राम को पहचाना है। सस्ता नहीं है काम। कविता लिखनी तो सस्ती बात है; कोई भी जो तुक जोड़ लेता हो, कवि हो जाए। लेकिन मलूक की मस्ती सस्ती बात नहीं है; महंगा सौदा है। सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता है। जरा भी बचाया तो चूके। रत्ती भर बचाया तो चूके। निन्यानबे प्रतिशत दांव पर लगाया और एक प्रतिशत भी बचाया तो चूके, क्योंकि उस एक प्रतिशत बचाने में ही तुम्हारी बेईमानी जाहिर हो गई। निन्यानबे प्रतिशत दांव पर लगाने में तुम्हारी श्रद्धा जाहिर न हुई, मगर एक प्रतिशत बचाने में तुम्हारा काईयांपन जाहिर हो गया। दांव तो हो तो सौ प्रतिशत होता है; नहीं तो दांव नहीं होता, दुकानदारी होती है। मलूक के साथ चलना हो तो जुआरी की बात समझनी होगी; दुकानदार की बात छोड़ देनी होगी। यह दांव लगाने वालों की बात है–दीवानों की!–धर्मशास्त्री नहीं है। नहीं समझ में पड़ता कि वेद पढ़े होंगे। नहीं समझ में पड़ता कि उपनिषद जाने होंगे। लेकिन फिर भी वेदों का जो राज है और उपनिषदों का जो सार है, वह उनके प्राणों से बिखरा है, फैला है। वेद जान कर कभी किसी ने वेद जाने? स्वयं को जान कर वेद जाने जाते हैं। चार वेद नहीं हैं–एक ही वेद है! वह तुम्हारे भीतर है; वह तुम्हारे चैतन्य का है। और एक सौ आठ उपनिषद नहीं हैं–एक ही उपनिषद है! और वह उपनिषद शास्त्र नहीं है; स्वयं की सत्ता है। मलूकदास पंडित नहीं हैं, ज्ञानी नहीं हैं। मलूकदास से पहचान करनी हो तो मंदिर को मधुशाला बनाना पड़े। तो पूजा-पाठ से नहीं होगा। औपचारिक आडंबर से परमात्मा नहीं सधेगा। हार्दिक समर्पण चाहिए। समर्पण–जो कि समग्र हो! समर्पण ऐसा कि झुको तो फिर उठो नहीं। उसके द्वार पर झुक गए तो फिर उठना कैसा! जो काबा से लौट आता है वह काबा गया ही नहीं। जो मंदिर से वापस आ जाता है वह कहीं और गया होगा, मंदिर नहीं गया। —ओशो
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